जिन्दगी की कुछ अनकही बाँतें, अनकही मुलाकातें... (Part - 3)
आज फिर "महिना" आया हैं...
हर एक स्त्री के जीवन
मे ये समय आता हैं जब उसे शरीर के द्वारा मिलते
हुए दर्द को सहन करना ही पड़ता हैं, वो आवश्यक भी हैं। स्त्री के जीवन का
एक हिस्सा है, महिना! हर एक लड़की इससे गुजरती हैं। आज इस बात को बयाँ करना जरूरी सा लग
रहा हैं। क्योंकि आज फिर महिना आया हैं!
बात उन दिनों की हैं
जब मैं स्कूल में थी। कक्षा सातवी। रोज की तरह उस दिन भी स्कूल जा रही थी बस मे। क्लास
मे पढ़ाई शुरू हुई। उस वक्त कुछ अजीब सा लग रहा था। पर समझ ना पाई क्या था। लन्च ब्रेक
में सभी दोस्तो के साथ क्लास से बहार निकलने के लिए बेन्च से खड़ी हुई तो दोस्त ने
बताया की मेरी युनिफोर्म मे पिछे की तरफ लाल धब्बे थे। समझ ना पाई की हो क्या रहा था।
भागती हुई वोशरूम मे गई और साथ में एक दोस्त भी आई। उसने बताया की, “तुम्हारा महिना आया
हैं।“ ये शब्द मेरी समझ के परे था। दोस्त ने फटाफट मेडम को बुलाया और सारी बात बताई।
उन्होंने मुझे सैनिटरी पैड दिया और उसका इस्तेमाल समझाया और कहा की मैं घर चली जाऊँ।
ना हि उन्होंने मुझे बताया की ये क्या हो रहा था मेरे साथ और ना ही ये सोचा की मैं घर इस
हालत मे कैसे जा पाऊँगी। जेसे – तेसे अपने कपड़ो पे लगे दागो को छूपाते हुए स्कूल
से निकली और बस पकड़ी। बस मे बैठे लोग जिस नजर से देख रहे थे समझ नहीं आया की क्या हो
रहा था। बस स्टोप पर उतरकर भागती हुई घर पर आई और वोशरूम मे चली गई। माँ ने दरवाजे
पर ही समझ लिया था की मेरे महिने शुरू हो चुके हैं। फिर कपड़े बदले और बहार आई। आते
ही तुरंत माँ से पुछा की क्या हो रहा है मेरे साथ। माँ ने फिर सारी बाँते समझाई।
जब पहेली बार महिना
आया तो स्कूल की छूट्टी रखी थी। पर उन पाँच दिनों मे सब कुछ बदल सा गया हो ऐसा लग रहा
था। पीरियड्स के बारे मे उस दिन से पहेले
ना ही सुना था ना ही समझा था। पर उन दिनों मे मेरे साथ कुछ अलग सा हुआ। साथ मे बैठकर
खाना नहीं, अलग से बिस्तर मे रहना, रसोई घर मे आना नही, वगेरे। लगा मानो किसी
गुनाह कि सजा काँट रही हूँ। रहा नहीं गया इसलिए माँ से पूछा की मेरे साथ ऐसा व्यवहार
क्यूँ? माँ ने कहा की ये सदियों से चली आ रही परंपरा हैं जिसमे हमे इसी
तरह से ये पाँच – छ: दिन रहना पड़ता हैं। महसूस होने लगा मानो मैं अछूत हूँ। पर मै इसके
खिलाफ़ हो चुकी थी ठान लिया की ये दिनों को भी अपने बाकी के दिनों कि तरह जिऊँगी। तभी
तो हल नही मिला पर कोशिश जारी थी।
कक्षा दसवी मे आई तो
पढने मे आया menstruation (मासिक धर्म)। तब इसके बारे मे पढ़ाने के लिए अलग से क्लास लगी। लडके
अलग और लडकियाँ अलग। तब समझ मे आया कि क्यूँ मासिक के दिनों मे स्त्री को ये सब सहना
पड़ता हैं। सवाल एक ही था मन में क्यूँ बाकी दिनों की तरह हम ये दिनों मे अलग से रहते
हैं। एक्मात्र जवाब भगवान ने ऐसी कोई सोच नही रखी हैं जिसमे मासिक के वक्त स्त्री को
इस तरह का वर्तन सहना पड़े। ये सब तुच्छ परंपराएँ हम मनुष्य ने बनाई हैं।
घर जाकर सबसे पहले
इसकी जागृत्ता लाने की शुरुआत अपने घर से की और माँ को समझाया और ठान लिया की इनी फालतू सी बातों को मै स्वीकार नहीं करूँगी। माँ मेरी बात से सहमत हुई और आज दिन तक मेरे घर मे हम इस फालतू
सी परंपरा का पालन नहीं करते हैं।
मासिक एक आम बात हैं
जो हर एक लडकी के जीवन मे घटित होता हैं। किन्तु जिस नजर से समाज उसे देखता हैं परंपराओ
या अछूत के नाम से वो गलत हैं। हमारी शिक्षा में इसका उल्लेख तो हैं पर इसकी समझ अलग
– अलग बिठाकर दी जाती हैं। ये शिक्षा देने के ढ़्ग को बदलना जरूरी। आगे आकर menstruation के बारे में बात करना जरूरी हैं। अब नहीं तो कब? जो मैंने लोगो की नजरों
में अपने आपको देखा वैसा ओर कोई लडकी ना देखे।
कभी अगर आसपास किसी
लडकी को पीरियड्स आ जाए और उसे पता ना चले तो महेरबानी करके उसकी मदद करे फिर
ये ना सोचे की मैं मर्द हूँ। किसी की मदद करने में औरत या मर्द नहीं इन्सानीयत देखी
जाती हैं ताकि अगर कोई लडकी इस हालात में हो और उसे पता न हो तो उसे सहानुभूति और
समझ दिजीए नाकि ऐसी नजर से देखे की उसका मुँह शर्म से नीचा हो जाए जो की मैंने देखा
था।
"शुरूआत खुद से करो,
अपने घर मे पहल करो,
घर की सोच बदलेगी, तब ही समाज की सोच
बदल पाओगे।
मैंने अपने घर से शुरूआत
की, और आपने?
विचार अवश्य किजिएगा!"
👏👏👏👏
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