जिन्दगी की कुछ अनकही बाँतें, अनकही मुलाकातें...(Part - 1)
बचपन
जिंदगी! जिसके मायने हर किसी के लिए अलग-अलग हैं, मक्सद अलग-अलग
हैं, लेकिन
हर कोई हर एक पड़ाव से गुजर कर आगे बढ़ता हैं। पड़ाव यानि बचपन, जवानी और
बुढ़ापा। लेकिन हर एक पड़ाव एक नई और अनोखी कहानी बयान करता हैं। हर किसी की कहानी
एक सबक दे जाती हैं, चाहे
उस इस इंसान को या उस कहानी को पढ़नेवाले को!
जिंदगी के पड़ावो
मे सबसे सुहाना और सुकुनीयत वाला पड़ाव हैं, बचपन! हम सबके बचपन के किस्से और कहानियाँ बेहतरीन
होते हैं। बचपन के दिन भी क्या दिन थे न! ना कोई तनाव, ना कोई अहं, ना कोई स्वार्थ, बस मायने कुछ
रखता था तो वो थी अपनी खुशियाँ जो शायद सबसे अमूल्य थी।
मैं अपने
माता-पिता की एक लौती बेटी हूँ। माँ के लिए सबसे खुशी का दिन है मेरा जन्मदिन, आखिर उनकी शेरनी
जैसी बेटी का जो जन्मदिन हैं। बाकि परिवारवाले भी खुश थे। मैं एक मध्यम वर्गीय
परिवार से हूँ। जन्म हुआ मुंबई मे और उस के कुछ दिनों बाद मे अहमदाबाद आ गई। १०
महिने की हुई तो माँ ने नोकरी शुरू की। पिताजी भी काम पर जाया करते थे। ख्याल रखा
करते थे तो मेरे आसपास मे रहनेवाले पड़ोसी। दादा-दादी थे तो सही पर उनका प्यार कभी
मिल ही नहीं पाया आखिर एक लड़की जो ठेहरी, पर फिर भी किसी तरह अपने आप मे मस्त रहती थी क्योंकि
शायद पता था मुझे की आगे बढ़ने के लिए खुद अकेले ही राह पर चलना पड़ता हैं। और
आसपास में रहनेवाले सभी पड़ोसी इतने प्यारे थे की कभी माँ की कमी महसूस होने न दी।
हर शाम ६ बजे दरवाजे के पास जाकर बैठ जाना और मेरी निगाहों मे माँ के आने का इन्तजार
झलकता था।
२ या ढ़ाई साल की
हुई तो दादा-दादी के घर से निकाल दिए गए। उसके बाद मुझे संभाल ने के लिए कोई नहीं
रहा क्योंकि घर चलाना था इसीलिए माता-पिता दोनो काम करने लगे और मुझे भेज दिया गया
मुंबई अपने नाना-नानी के घर ताकि मेरी देखभाल हो सके। ढ़ाई – तीन साल की उम्र मे
माँ से दूर होना बहुत मुश्किल रहा, लेकिन फिर भी मैंने अपने मन को मनाकर १० महिने भी
गुजार लिए। फिर जब रहा ना गया तो माँ को बुलावा भेजा क्योंकि तेज बुखार से बिस्तर
पर पड़ी रहने लगी थी। माँ से रहा नहीं गया इसलिए मुझे अहमदाबाद लेकर आ गई। फिर
खुखियों का मौसम चलने लगा! माँ को फिर भी काम पर जाना पड़ता था। इसी वजह से वे
मुझे पड़ोस मे रहेनेवाली एक दादी के घर छोड़कर माँ काम पर जाया करती थी, क्योंकि
मजबूरियों ने जकड़े रखा था। लेकिन अपने हाथों से खाना बनाकर मुझे टिफ़िन दिया करती
थी। पर माँ के काम पर जाने के बाद वे दादी मुझसे मेरा टिफ़िन छिन कर अपने पोते को
खिला देती थी, घर
के काम करवाती थी। काफी दिनों तक अपने अंदर इस बात को दबाएँ रखा और फिर पानी सिर
से उपर चला गया तो सारी बाँते माँ को बता दी। माँ को पता चलने पर उन्होंने उस दादी
को बहुत डाँट लगाई। माँ का दिल है, अपनी बेटी से बढ़कर ओर कुछ नहीं था उनके लिए इसीलिए
अपनी नोकरी भी छोड़ दी।
जिंदगी के वो
पाँच साल ने समझ, सुझ-बुझ
ऐसी दी की आज भी उस समय से सबक लेती हूँ की संघर्ष कबसे करना पड़ जाए पता भी नहीं
चलता। कभी दर्द भी होता की ऐसे दिन न देखे होते तो माँ के साथ ओर ज्यादा अच्छी
याँदें बटोर लेती। पर शायद वो समय मुझे सबक देना चाहता था की मैं किसी की मोहताज
नहीं बनूँगी, अपनी
लड़ाई खुद लड़ूंगी। हाँ, शायद
आसपास के लोग या समाज मेरा साथ नहीं देगा, लेकिन कोई हो ना हो मेरी माँ मेरा साथ नहिं छोडेंगी
और आज भी वो मेरे साथ हैं, जिंदगी
के हर कदम पर ढ़ाल बनके खड़ी रही है मेरे लिए!
बचपन आज भी याद
करती हूँ या माँ से अपने बचपन की कहानियाँ सुनती हूँ तो लगता है कि संघर्ष, समस्याएँ और
चुनोतियाँ हमेशा हमारे सामने आती है, फर्क सिर्फ इतना है कि तब हम नादान थे, और आज हम जवान
हैं…
"बचपन की नादानियोंने संघर्षो का पता चलने ना दिया,
आज संघर्षो में इतने उलझे हुए है कि उसने जिंदगी का पता चलने ना दिया,
क्योंना फिर से अपने दिल के किसी कोने मे छिपे हुए बच्चे को जिंदा करके देखे,
फिर से जिंदगी को बचपन की तरह जिके देखे।"
👏👏👏👏👏
ReplyDeleteGood one 🙏
ReplyDeleteGood one 🙏
ReplyDeleteGood one 🙏
ReplyDeleteRight ❤️....keep it up
ReplyDeleteKeep it up 👏👏👏
ReplyDeleteBeautiful blog
ReplyDeleteKeept up
You made me cry💌💌..
ReplyDeleteVaah✨
ReplyDeleteheart touching 💜💗
ReplyDelete❤️
ReplyDeleteVery sweet and heartfelt, Mainly the moment with grandma's. it was so well written. The story then manages to elegantly transmit a highly universal presentation of what it is to daughter in a strong, impacting and profound manner. motherhood from beginning to end, a thing called LIFE !!!
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